मौलिक अधिकार और रिट याचिका : संबंधित क्षेत्र : उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की शक्ति : अनुच्छेद 32 & 226 : भारतीय शासन व्यवस्था
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1. संवैधानिक प्रावधान
2. बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)
3. परमादेश (Mandamus)
4. प्रतिषेध (Prohibition)
5. उत्प्रेषण ( Certiorari)
6. अधिकार-प्रच्छा
7. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के रिट अधिकारिता में अंतर
कुछ समय पूर्व उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया है कि सार्वजनिक पदों पर ‘प्रोन्नति में आरक्षण’ मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य को ऐसा करने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि ‘प्रोन्नति में आरक्षण’ के लिये परमादेश रिट जारी करने की बाध्यता नहीं है।
रिट अधिकारिता : संवैधानिक प्रावधान
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एक रिट का अर्थ है –आदेश, यानि वह कुछ भी जिसे एक अधिकार के तहत जारी किया जाता है इसे रिट के रूप में जाना जाता है। अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 के तहत भारतीय संविधान के तीसरे भाग में प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए भारत का संविधान उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को अधिकार प्रदान करता है।
रिट संबंधी प्रावधान
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भारत में सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 32 और उच्च न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत विशेषाधिकार संबंधी रिट जारी कर सकते हैं। ये हैं:
1.बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)
2.परमादेश (Mandamus)
3.प्रतिषेध (Prohibition)
4.उत्प्रेषण ( Certiorari)
5.अधिकार-प्रच्छा(Quo-Warran
परमादेश रिट क्या है ?
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इसका अर्थ है ‘साधारण कानूनी उपाय अपर्याप्त होने पर संप्रभु इकाई द्वारा जारी किया गया असाधारण आदेश’।
परमादेश का शाब्दिक अर्थ है 'हम आदेश देंते हैं’ अर्थात यह किसी व्यक्ति या निकाय को (सार्वजनिक या अर्द्ध-सार्वजनिक) उस स्थिति में कर्त्तव्य पालन का आदेश देता है यदि इन निकायों ने ऐसा कार्य करने से मना कर दिया हो और जहाँ उस कर्त्तव्य के पालन को लागू करने के लिये अन्य पर्याप्त कानूनी उपाय मौजूद नहीं हैं।
यह रिट तब तक जारी नहीं की जा सकती है जब तक कि कानूनी कर्तव्य सार्वजनिक प्रकृति का नहीं है और आवेदक का कानूनी अधिकार शामिल न हो।
रिट जारी करने का उपाय एक विवेकाधीन प्रकृति का विषय है क्योंकि यदि अन्य वैकल्पिक उपाय मौजूद हैं तो ऐसे में न्यायालय रिट जारी करने से मना कर सकता है। हालाँकि मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये वैकल्पिक उपाय उतना प्रभाव नहीं रखते है जितना कि रिट रखती है।
रिट को अवर न्यायालयों या अन्य न्यायिक निकायों के खिलाफ भी जारी किया जा सकता है, यदि उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल करने और अपना कर्त्तव्य निभाने से इनकार कर दिया हो।
रिट को एक निजी व्यक्ति या निकाय के खिलाफ जारी नहीं किया जा सकता है, सिवाय इसके कि जहाँ राज्य और निजी पार्टी की मिलीभगत (Collusion) संविधान या किसी कानून के प्रावधान का उल्लंघन करती हो।
भारत सरकार बनाम उन्नी कृष्णन वाद में यह कहा गया कि सहायता और संबद्धता के सवाल की परवाह किए बगैर एक निजी चिकित्सा / इंजीनियरिंग कॉलेज अदालत की रिट क्षेत्राधिकार के भीतर आता है।
अनुच्छेद 361 के तहत इसे राष्ट्रपति या राज्यपाल के खिलाफ जारी नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 361 : राष्ट्रपति और राज्यपालों तथा राजप्रमुखों का संरक्षण
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राष्ट्रपति या राज्यपाल या किसी राज्य का प्रमुख अपने कार्यालय की शक्तियों और कर्त्तव्यों के पालन और उसके द्वारा किये जाने वाले किसी भी कार्य के लिये किसी न्यायालय में जवाबदेह नहीं होंगा।
1951 में वेंकटरामन बनाम स्टेट ऑफ मद्रास के मामले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ ने परमादेश रिट जारी की थी। इस मामले में याचिकाकर्ता का अधीनस्थ नागरिक न्यायिक सेवा में चयन नहीं किया गया था। पीठ ने मद्रास राज्य को याचिकाकर्ता के आवेदन पर विचार करने और सांप्रदायिक रोटेशन (Communal Rotation Order) के नियम को लागू किये बिना मेरिट के आधार पर पद संबंधी मामले को निपटाने का आदेश दिया।
बन्दी प्रत्यक्षीकरण : Habeas Corpus ?
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हैबियस कॉर्पस एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है कि "आपके पास शरीर होना चाहिए"। रिट एक अदालत के समक्ष एक ऐसे आदमी को पेश करने के लिए जारी की जाती है जिसे हिरासत में या जेल में रखा गया है और हिरासत में लेने के 24 घंटे के भीतर उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं किया गया है और यदि यह पाया जाता है कि हिरासत में अवैध तरीके से रखा गया है तो कोर्ट ऐसे व्यक्ति को रिहा करा देती है। रिट का उद्देश्य अपराधी को दंडित करने का नहीं होता लेकिन अवैध तरीके से हिरासत में लिए गये व्यक्ति को रिहा कराना होता है।
हालांकि, अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) को आपातकाल की घोषणा के दौरान भी निलंबित नहीं किया जा सकता है।
इसलिए, बंदी प्रत्यक्षीकरण एक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए एक बहुत ही मूल्यवान रिट बन जाती है।
सुप्रीम कोर्ट केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में ही राज्य के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट जारी कर सकता है जबकि उच्च न्यायालय अवैध रूप से या मनमाने ढंग से हिरासत में लिए गये किसी भी आम नागिरक के खिलाफ भी यह जारी कर सकता है। बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट हिरासत में लिया गये व्यक्ति द्वारा स्वंय या उसकी ओर से कोई भी व्यक्ति दायर कर सकता है।
सुनील बत्रा II बनाम दिल्ली प्रशासन का मामला
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सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को एक अपराधी द्वारा एक पत्र लिखा गया था जिसे एक रिट को याचिका के रूप में लिया गया था। न्यायालय ने इस रिट को राज्य की दंडात्मक सुविधाओं की उपेक्षा के लिए नियोजित किया था। यह रिट तब जारी की गयी थी जब जेल के साथियों को कानूनी सहायता प्रदान करने और उनका साक्षात्कार करने के लिए कानून के छात्रों पर प्रतिबंध लगाया गया था।
बंदी प्रत्यक्षीकरण कब जारी नहीं की जा सकती है ?
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1.अगर व्यक्ति को कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत हिरासत में लिया गया हो।
2.यदि कार्यवाही किसी विधानमंडल या न्यायालय की अवमानना के तहत हुई हो।
3.न्यायलय के आदेश द्वारा हिरासत में लिया गया हो।
उत्प्रेषण (Certiorari)
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Certiorari (उत्प्रेषण) एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ 'सूचित करने के लिए' ।
'उत्प्रेषण' को एक न्यायिक आदेश के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो आचरण से संबंधित होता है और कानूनी कार्यवाही में उपयोग किया जाता है। इसे निगम जैसे संवैधानिक और सांविधिक निकायों, कंपनियों और सहकारी समितियों जैसे निकायों और सहकारी समितियों तथा निजी निकायों तथा व्यक्तियों के खिलाफ जारी अदालत द्वारा प्रमाणित और कानून के अनुसार किसी भी कार्रवाई के रिकार्ड की आवश्यकता होती है।
ऐसे विभिन्न प्रकार के आधार हैं जिसके आधार पर उत्प्रेषण की रिट जारी की जाती है
1) अधिकार क्षेत्र का अभाव
2) न्याय क्षेत्र का दुरूपयोग
3) अधिकार क्षेत्र का दुरुपयोग
4) समान न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन।
सैय्यद याकूब बनाम राधाकृष्णन वाद में, यह कहा गया कि उत्प्रेषक्ष की रिट जारी करना उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का एक पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार है और इस पर अदालती कार्यवाही एक अपीलीय अदालत के रूप में कार्य करने की पात्र नहीं है।
कानून की एक त्रुटि जो स्पष्ट रूप से द्स्तावेजों में अंकित है को तो रिट द्वारा सुधारा जा सकता है लेकिन तथ्य की त्रुटि को सहीं नहीं किया जा सकता है। हालांकि, यदि एक तथ्य का निष्कर्ष 'कोई सबूत नहीं है' पर आधारित है तो इसे कानून की एक त्रुटि के रूप मे माना जाएगा जिसे उत्प्रेषण द्वारा ठीक किया जा सकता है।
निषेधाज्ञा (Prohibition)
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निषेधाज्ञा का अर्थ है "मना करना या बंद करना" और आम बोलचाल में इसे 'स्टे आर्डर' के रूप में जाना जाता है।
जब कोई निचली अदालत या एक अर्ध न्यायिक निकाय एक विशेष मामले में अपने अधिकार क्षेत्र में प्रद्त्त अधिकारों को अतिक्रमित कर किसी भी मुक़दमें की सुनवाई करती है तो सुप्रीम कोर्ट या अन्य कोई भी उच्च न्यायालय द्वारा रिट जारी की जाती है।
भारत में, निषेधाज्ञा को मनमाने प्रशासनिक कार्यो से व्यक्ति की रक्षा के लिए जारी किया जाता है।
अधिकार पृच्छा (Quo warranto)
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Quo warranto एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है "किस अधिकार द्वारा"।
जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिसका वह हकदार नहीं है तब न्यायालय इस (अधिकार पृच्छा) को जारी कर सकता है और व्यक्ति को उस पद पर कार्य करने से रोक देता है। संविधान द्वारा निर्मित कार्यालयों के खिलाफ इसे जारी किया जा सकता है जैसे- एडवोकेट जनरल, विधान सभा के अध्यक्ष, नगर निगम अधिनियम के तहत वाले अधिकारी, एक स्थानीय सरकारी बोर्ड के सदस्य, विश्वविद्यालय के अधिकारी और शिक्षक। किंतु इसे निजी स्कूलों की प्रंबंध समिति के खिलाफ जारी नहीं किया जाता है क्योंकि उनकी नियुक्ति किसी प्राधिकरण के तहत नहीं होती है।
उदाहरण - उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के खिलाफ यह रिट जारी की गई थी।
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता में अंतर
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उच्चतम न्यायालय की रिट अधिकारिता का प्रभाव संपूर्ण भारत में है, जबकि उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता का विस्तार संबंधित राज्य की सीमा तक ही है।
उच्चतम न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी कर सकता है, जबकि उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के अलावा अन्य विषयों के संदर्भ में भी रिट जारी कर सकता है।
उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय के विरुद्ध प्रतिषेध तथा उत्प्रेषण रिट जारी कर सकता है परंतु उच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय के विरुद्ध ऐसा नहीं कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत दाखिल किये गए रिट की सुनवाई से इनकार नहीं कर सकता जबकि अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा रिट को सुनवाई के लिये स्वीकार किया जाना संवैधानिक रूप से अनिवार्य नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के रिट अधिकार क्षेत्र के बीच अंतर
अंतर के आधार | सर्वोच्च न्यायालय | उच्च न्यायालय |
दायरा | सर्वोच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्ति सीमित है। | उच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति की तुलना में व्यापक है। |
प्रावधान | रिट जारी करने की सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 में किया गया है। | रिट जारी करने की उच्च न्यायालय की शक्ति का उल्लेख भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 में किया गया है। |
प्रकृति | अनुच्छेद 32 भारत के संविधान के भाग III में वर्णित एक मौलिक अधिकार है, जिसकी गारंटी देश के सभी नागरिकों को है। यह बुनियादी संरचना सिद्धांत का भी एक हिस्सा है। | अनुच्छेद 226 नागरिकों को गारंटीकृत मौलिक अधिकार नहीं है। |
अधिकार क्षेत्र | रिट जारी करने का सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र पूरे देश में फैला हुआ है। | रिट जारी करने का उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र केवल उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश तक सीमित है जो संबंधित उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आता है। |
रिट कब जारी की जा सकती है? | सर्वोच्च न्यायालय केवल तभी रिट जारी कर सकता है जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो। | उच्च न्यायालय दो परिस्थितियों में रिट जारी कर सकता है- जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है या जब किसी व्यक्ति के कानूनी अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो कानून के तहत ऐसे मामले में रिट जारी करना एक उचित उपाय है। |
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